कई ऐसे त्वचा रोग हैं, जो लंबे समय तक रोगी को परेशान करते हैं. कई बार लंबे समय तक इलाज के बावजूद ये ठीक नहीं होते हैं. ऐसे में रोगी निराश भी हो जाते हैं. सोरायसिस एक ऐसा ही रोग है, जो आॅटो इम्यून डिसआॅर्डर है. अगर सही तरीके से धैर्य रख कर इलाज कराया जाये, तो इस रोग से भी छुटकारा पाया जा सकता है.
सोरायसिस क्रॉनिक यानी बार बार होनेवाला आॅटोइम्यून डिजीज है, जो शरीर के अनेक अंगो को प्रभावित करता है. यह मुख्य रूप से त्वचा पर दिखाई देता है, इसलिए इसे चर्म रोग ही समझा जाता है. यह किसी भी उम्र में हो सकता है. एक आंकड़े के मुताबिक दुनिया भर में लगभग एक प्रतिशत लोग इस रोग से पीड़ित हैं. यह रोग किसी भी उम्र में शुरू हो सकता है पर अकसर 20-30 वर्ष की आयु में अधिक आरंभ होता है. 60 वर्ष की आयु के बाद इसके होने की आशंका अत्यंत कम होती है. 5-10 प्रतिशत रोगियों में माता-पिता या परिवार के अन्य सदस्य को भी इस रोग से पीड़ित देखा गया है. आयुर्वेद में सोरायसिस को एक कुष्ठ, मंडल कुष्ठ या किटिभ कुष्ठ जैसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है. बोलचाल की भाषा में कुछ लोग इसे छाल रोग भी कहते हैं.
क्या हैं कारण
शरीर के इम्यून सिस्टम यानी रोग प्रतिरोधक प्रणाली की गड़बड़ी को इसका कारण माना जाता है. आयुर्वेद में विरुद्ध आहार या असंतुलित खान-पान के कारण पित्त और कफ दोषों में होनेवाली विकृति को इसका कारण बताया गया है. त्वचा की सबसे बाहरी परत (एपिडर्मिस) की अरबों कोशिकाएं प्रतिदिन झड़ कर नयी कोशिकाएं बनती हैं और एक महीने में पूरी नयी त्वचा का निर्माण हो जाता है. सोरायसिस में कोशिकाओं का निर्माण असामान्य रूप से तेज हो जाता है और नयी कोशिकाएं एक माह की जगह चार-पांच दिनों में बन कर मोटी चमकीली परत के रूप में दिखाई पड़ती हैं और आसानी से झड़ने लगती है. चोट लगने, संक्रामक रोग के बाद या अन्य दवाओं के कुप्रभाव के कारण भी सोरायसिस की शुरुआत होती है.
इस रोग के लक्षण
सोरायसिस कोहनी, घुटनों, खोपड़ी, पीठ, पेट, हाथ, पांव की त्वचा पर अधिक होता है. शुरुआत में त्वचा पर रूखापन आ जाता है, लालिमा लिये छोटे-छोटे दाने निकल आते हैं. ये दाने मिल कर छोटे या फिर काफी बड़े चकत्तों का रूप ले लेते है. चकत्तों की त्वचा मोटी हो जाती है.
हल्की या तेज खुजली होती है. खुजलाने से त्वचा से चमकीली पतली परत निकलती है. परत निकलने के बाद नीचे की त्वचा लाल दिखाई पड़ती है और खून की छोटी बूंदे दिखाई पड़ सकती हैं. खोपड़ी की त्वचा प्रभावित होने पर यह कभी रूसी की तरह या अत्यधिक मोटी परत के रूप में दिखाई पड़ती है. नाखूनों के प्रभावित होने पर उनमें छोटे-छोटे गड्ढे हो सकते हैं. विकृत हो कर मोटे या टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं. नाखून पूरी तरह नष्ट भी हो सकते हैं.
लगभग 20% सोरायसिस के पुराने रोगियों के जोड़ों में दर्द और सूजन भी हो जाती है, जिसे सोरायटिक आर्थराइटिस के नाम से जाना जाता है. अधिकांश रोगियों में रोग के लक्षण ठंड के समय में बढ़ जाते हैं. पर कुछ रोगियों को गरमी के महीने में अधिक परेशानी होती है. तनाव, शराब के सेवन या धूम्रपान से भी लक्षण बढ़ जाते हैं. अधिक प्रोटीन युक्त भोजन जैसे-मांस, सोयाबीन, दालों के सेवन से भी रोग के लक्षणों में वृद्धि हो सकती है. यह छूत की बीमारी नहीं है.
जिद्दी त्वचा रोग है सोरायसिस
सोरायसिस एक आॅटो इम्यून डिजीज है, जिसमें त्वचा पर चकत्ते पड़ जाते हैं और उनमें खुजली होती है. यह रोग काफी जिद्दी है और लंबे समय तक परेशान करता है. अगर धैर्य रख कर इसका उपचार सही तरीके से कराया जाये, तो इससे छुटकारा मिल सकता है. आयुर्वेद से इसके ठीक होने की संभावना अधिक होती है.
रोग के अनेक प्रकार
प्लाक सोरायसिस : लगभग 70-80 % रोगी प्लाक सोरायसिस से ही ग्रस्त होते हैं. इसमें कोहनियों, घुटनों, पीठ, कमर, पेट और खोपड़ी की त्वचा पर रक्तिम, छिलकेदार मोटे धब्बे या चकत्ते निकल आते हैं. इनका आकार दो-चार मिमी से लेकर कुछ सेमी तक हो सकता है.
गट्टेट सोरायसिस : यह अकसर कम उम्र के बच्चों के हाथ पांव, गले, पेट या पीठ पर छोटे -छोटे लाल दानों के रूप में दिखाई पड़ता है. प्रभावित त्वचा प्लाक सोरायसिस की तरह मोटी परतदार नहीं होती है. अनेक रोगी स्वत: या इलाज से चार-छह हफ्तों में ठीक हो जाते हैं. पर कभी-कभी ये प्लाक सोरायसिस में परिवर्तित हो सकते हैं
पामोप्लांटर सोरायसिस : यह मुख्य रूप से हथेलियों और तलवों को प्रभावित करता है.
पुस्चुलर सोरायसिस: इस प्रकार में अकसर हथेलियों, तलवों या कभी-कभी पूरे शरीर में लालिमा से घिरे दानों में मवाद हो जाता है.
एरिथ्रोडार्मिक सोरायसिस : इस प्रकार के सोरायसिस में चेहरे समेत शरीर की 80 प्रतिशत से अधिक त्वचा पर जलन के साथ लालिमा लिये चकत्ते हो जाते हैं. शरीर का तापमान असामान्य हो जाता है, हृदय गति बढ़ जाती है और समय पर उचित चिकित्सा नहीं होने पर रोगी के प्राण जा सकते हैं.
इन्वर्स सोरायसिस : इसमे स्तनों के नीचे, बगल, कांख या जांघों के उपरी हिस्से में लाल बड़े-बड़े चकते बन जाते हैं.
होमियोपैथी में उपचार
सोरायसिस इम्युनिटी में गड़बड़ी के कारण होता है, इसलिए इसका उपचार करने का सबसे अच्छा तरीका इम्युनिटी में सुधार करना ही है. अत: इम्युनिटी को सुधारने के लिए सोरिनम सीएम शक्ति की दवा चार बूंद महीने में एक बार लें.
काली आर्च : अगर त्वचा से रूसी निकले, नोचने पर और अधिक निकले, रोग जोड़ों पर अधिक हो, तो काली आर्च 200 शक्ति की दवा चार बूंद रोज सुबह में दें.
पामर या प्लांटर सोरायसिस : अगर सोरायसिस हथेली या तलवों तक ही सीमित हो, तो इसके लिए सबसे अच्छी दवा फॉस्फोरस है. इसकी 200 शक्ति की दवा चार बूंद सप्ताह में एक बार लें.
काली सल्फ : सोरायसिस सिर में भी होता है. सिर की त्वचा से सफेद रंग की रूसी निकले और गोल-गोल चकत्ते जैसे हों, तो काली सल्फ 200 शक्ति की दवा चार बूंद सप्ताह में एक बार लें.
रोग को ठीक होने में लंबा समय लग सकता है. अत: धैर्य रख कर उपचार कराना जरूरी है.
(होमियोपैथी विशेषज्ञ डॉ एस चंद्रा से बातचीत)
सोरायसिस की चिकित्सा
यह एक हठीला रोग है, जो अकसर पूरी तरह से ठीक नहीं होता है. यदि एक बार हो गया, तो जीवन भर चल सकता है. अर्थात् रोग होता है, फिर ठीक भी होता है, लेकिन बाद में फिर हो जाता है. कुछ रोगियों में यह लगातार भी रह सकता है. हालांकि इसके कुछ रोगी अपने आप ठीक भी हो जाते हैं.
क्यों ठीक होते हैं अभी तक कारण अज्ञात है. कुछ नये रोगी धैर्य से खान-पान परहेज के साथ जीवनशैली में आवश्यक परिवर्तन और सावधानियों के साथ दवाओं से पूरी तरह से ठीक हो जाते हैं अथवा रोग के लक्षणों से लंबी अवधि के लिए मुक्ति मिल जाती है. रोग के प्रारंभ में ही यदि आयुर्वेद विज्ञान से उपचार कराया जाता है, तो उपचार से रोग के ठीक होने की अधिक संभावना है. पुराने रोगियों को भी तुलनात्मक दृष्टि से कम खर्च में काफी राहत मिल जाती है. और रोगी बगैर परेशानी के सामान्य जीवन व्यतीत कर सकता है. एलोपैथ चिकित्सा प्रणाली में कुछ वर्षों पहले तक इसकी संतोषजनक चिकित्सा नहीं थी. विगत एक दशक में कई प्रभावकारी दवाएं विकसित हुई हैं, जिनके प्रयोग से लंबे समय तक रोग के लक्षणों से राहत मिल जाती है.
एलोपैथ चिकित्सा
साधारणतया सोरायसिस के लक्षण मॉश्च्यूराइजर्स या इमॉलिएंट्स जैसे-वैसलीन, ग्लिसरीन या अन्य क्रीम्स से भी नियंत्रित हो सकते हैं. यदि यह सिर पर होता है, तो विशेष प्रकार के टार शैंपू काम में लाये जाते हैं. मॉश्च्यूराइजर्स या अन्य क्रीम सिर और प्रभावित त्वचा को मुलायम रखते हैं. सिर के लिए सैलिसाइलिक एसिड लोशन और शरीर पर हो, तो सैलिसाइलिक एसिड क्रीम विशेष उपयोगी होती है. इसके अलावा कोलटार (क्रीम, लोशन, शैंपू) आदि दवाइयां उपयोगी होती हैं.
पुवा (पीयूवीए) थेरेपी : अल्ट्रावायलेट प्रकाश किरणों के साथ सोरलेन के प्रयोग से भी आंशिक रूप से लाभ मिलता है पर रोग ठीक नहीं होता.
बीमारी ज्यादा गंभीर हो, तब मीथोट्रीक्सेट और साइक्लोस्पोरिन नामक दवाओं से सामयिक और आंशिक लाभ होता है, पर हानिकारक प्रभावों के कारण लंबे समय तक इनके प्रयोग में अतिरिक्त सावधानी की आवश्यकता है.
इसके अलावा कैल्सिट्रायोल और कैल्सिपौट्रियोल नामक औषधियों का भी बहुत अच्छा प्रभाव होता है. पर ये महंगी होने के कारण सामान्य आदमी की पहुंच से बाहर होती हैं.
सेकुकीनुमाब नाम की बयोलॉजिकल मेडिसिन से बेहतर परिणाम मिले हैं. इस दवा से काफी लाभ होता है. पर इसका खर्च प्रतिवर्ष लाखों में होने के बावजूद रोग से पूरी तरह छुटकारे की गारंटी नहीं है. ये सब दवाएं किसी विशेषज्ञ चिकित्सक की देखरेख में ही लेनी चाहिए. रोग के लक्षणों को दूर होने में लंबा समय लग सकता है. इस कारण रोगी को धैर्य रख कर इलाज कराना चाहिए. बीच में इलाज छोड़ने से समस्या और बढ़ सकती है और समस्या दूर होने में भी परेशानी हो सकता है.
रोग होने पर क्या करें
विशेषज्ञ चिकित्सक की सलाह लें. एलोपैथ के साथ-साथ इस रोग में लाभकारी खानपान, जीवनशैली, आयुर्वेद तथा वनौषधियों के प्रयोग से इसमें लाभ मिलता है. नीम-हकीमों के और गारंटी से ठीक कर देनेवालों के चक्कर में अकसर धन और समय की हानि के साथ-साथ रोग की जटिलताएं बढ़ जाती हैं.
क्या है आॅटोइम्यून डिजीज
आहार, विहार तथा जीवनशैली में गड़बड़ी के साथ-साथ निरंतर बढ़ते कृत्रिम रसायनों के उपयोग, प्रदूषण जैसे ज्ञात तथा अनेक अज्ञात कारणों से शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति (इम्युनिटी) अपने ही शरीर के अंगो को हानि पंहुचाने लगती है और विभिन्न रोगों का कारण बनती है. इसे आप इस तरह समझ सकते हैं कि यदि पुलिस या सेना में विद्रोह हो जाये, तो वे नागरिक, समाज और देश की सुरक्षा के बजाय अपने ही नागरिकों और व्यवस्था के प्रति हिंसक हो जाते हैं. ठीक ऐसी ही घटना शरीर में भी होती है. इसी के कारण कोशिकाओं में तीव्र गति से वृद्धि होने लगती है.
कुछ आॅटोइम्यून बीमारियां : रुमेटॉयड आर्थराइटिस, सोरायसिस, हासिमोटो, थायरॉयड, ल्यूपस एरिदोमेटेसिस, स्क्लेरोडर्मा, अल्सरेटिव कोलाइटिस, क्रोह्नस डिजीज, विटिलिगो, एलोपेसिया एयार्टा आदि अनेक रोग इस श्रेणी में आते हैं.
आयुर्वेद स्वास्थ्य विज्ञान में सोरायसिस की चिकित्सा के लिए अनेक औषधियों के विकल्प के साथ-साथ आहार-विहार, परहेज का विशेष ध्यान रखा जाता है. कभी-कभी शरीर में व्याप्त हानिकारक तत्वों को निकालने के लिए पंचकर्म नामक विशिष्ट चिकित्सा का प्रयोग काफी लाभ दायक होता है. उपयोगी जड़ी-बूटियां तथा आयुर्वेदिक दवाएं जैसे-घृतकुमारी, श्वेत कुटज, अमृता (गुडिच), नीम, करंज, मजीठ, सारिवा, खदिर, मंडुकपर्णी, कुटकी, नीम, हल्दी, कैशोर गुगलू, रस माणिक्य, महामंजिष्ठादी, पंचतिक्त घृत
प्रतिदिन 20-30 ग्राम तीसी (अलसी) के सेवन के साथ इसके स्थानीय लेप से कई रोगियों को 70-80 प्रतिशत लाभ होने के अनुभव आये हैं.
विज्ञान सम्मत तथा परीक्षित उपयोगी घरेलू चिकित्सा
- -नीम की पत्तियां या गुडिच के तने को पीस कर या उबाल कर सोरायसिस से प्रभावित अंग धोएं.
- -घृतकुमारी (एलोवेरा) का ताजा गूदा त्वचा पर लगाएं या इस गूदे का प्रतिदिन दो-तीन चम्मच दिन में दो बार सेवन करें.
- -प्रतिदिन 20-30 ग्राम तीसी (अलसी) का सेवन करने से भी लाभ होता है.
- -मांस, मुर्गा, अंडा, उड़द, मटर, सोयाबीन जैसे अधिक प्रोटीन युक्त भोजन न करें.
- -कपालभाति और अनुलोम-विलोम का नियमित अभ्यास भी रोग से राहत देने में उपयोगी है.
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